Friday, April 3, 2009

मनोगुप्ति सज्झाय : श्रीमद देवचंद



दुष्ट तुरंगम चित्त ने कह्यो रे, मोह नृपति परधान ।

आर्त रौद्र नु क्षेत्र ऐ रे , रोक तू ज्ञान निधान रे। १

मन को दुष्ट घोड़े की उपमा दी है और उसे मोह राजा का मंत्री कहा है. यह आर्त एवं रौद्र ध्यान का स्थान है अतः हे ज्ञान निधान आत्मा इसे रोको।

मुनि मन वश करो, मन ऐ आश्रव गेहो रे ।
मन ऐ तारशे- मन स्थिर यतिवर तेहो रे। २

हे मुनि ! मन वश में करो। मन यह आश्रव का घर है। वश में होने पर यही मन तारेगा, जिन का मन वश में है वो मुनि सर्व श्रेष्ठ हैं.

गुप्ती प्रथम ऐ साधू ने रे, धर्मं शुक्ल नो रे कन्द।
वस्तु धर्मं चिंतन रम्या रे, साधे पूर्णानंद । ३

साधू की यह प्रथम गुप्ती है जो की धर्म एवं शुक्ल ध्यान का मूल है। वस्तु धर्म के चिंतन में रमे हुए साधू पूर्णानंद प्राप्त करते हैं।

योग ते पुद्गल जोग छे रे, खेंचे अभिनव कर्म ।
योग वर्तना कंपना रे, नवी ऐ आतम धर्मो रे। ४

मन, वचन, व काया ये तीन जैन दर्शन में योग कहलाते हैं। ये तीनो योग पुद्गल के संयोग से ही प्रवृत्त होते हैं जो नए कर्मों को खींचता है। योगों का व्यवहार योगवर्तना है जो की आत्मा में कम्पन से उत्पन्न होता है, पर यह आत्मा का धर्म नहीं है (परन्तु पुद्गल के संयोग से पैदा होता है)।


वीर्य चपल पर संगमी रे, एह न साधक पक्ष ।
ज्ञान चरण सहकारता रे , वरतावे दक्षो रे। ५

पुद्गलों के संयोगों से प्रवृत्त आत्मवीर्य चंचल एवं चपल होता है। ऐसा मन साधक नहीं होता है। इसलिए दक्ष मुनि अपने मन / आत्म वीर्य को ज्ञान व चरित्र के साथ लगाते हैं.

रत्नत्रयी नी भेदना रे, एह समल व्यवहार.
त्रिकरण वीर्य एकत्व्तता रे, निर्मल आतमचारो रे। ६

मुनि की निर्मल दशा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये तीनों का भेद भी मिट जाता है। तीनों करण (करना, कराना, अनुमोदन करना) की एकता से रत्न त्रयी की अभेद अवस्था को साधने का पुरुषार्थ निर्मल आत्माचार है ।


सविकल्पक गुण साधुना रे, ध्यानी ने न सुहाए.
निर्विकल्प अनुभव रसि रे, आत्मानंदी थायो रे. ७

ध्यानी साधू को सविकल्प गुण अच्छे नही लगते। वे तो निर्विकल्प अनुभव के रसिक हो कर आत्मानंद का अनुभव करते हैं।

शुक्ल ध्यान श्रुतावलम्बनी रे, ऐ पण साधन दाव।
वस्तु धर्म उत्सर्ग में रे , गुण गुणी एक स्वभावो रे। ८.

ऐसी उच्चा अवस्था के मुनि के लिए शुक्ल ध्यान के लिए लिया हुआ श्रुत का आलम्वन भी मात्र साधन ही है। उत्सर्ग मार्ग में तो एक मात्र वस्तु धर्म ही है जहाँ गुण और गुनी एक स्वभाव होते हैं।

पर सहाय गुण वर्तना रे, वस्तु धर्म न कहाया।
साध्य रसी ते किम ग्रहे रे, साधू चित्त सहायो रे। ९

पर की सहायता से जिन गुणों की वर्तना होती है वह वस्तु धर्म नहीं है । इसलिए अपने साध्य के रसिक उसे किस तरह ग्रहण कर सकते हैं? अर्थात् नहीं कर सकते। इसलिए साधू अपने चित्त से पर की सहायता नहीं लेते परन्तु आत्मा आत्मा के ही उपयोग में रमन करती है।

आत्मरसि आत्मालयी रे, ध्याता तत्त्व अनंत ।
स्यादवाद ज्ञानी मुनि रे, तत्त्व रमन उपशंतो रे। १०

आत्मा के रसिक, आत्मा का ही आश्रय लेने वाले, आत्मा में लीन रहने वाले, अनंत तत्त्व के ध्याता, स्यादवाद के ज्ञानी, तत्त्व रमणी, मुनि विषय एवं कषायों से उपशांत रहते हैं।


नवी अपवाद रुचि कदा रे, शिव रसिया अणगार ।
शक्ति यथागम सेवता रे , नींदे कर्म प्रचारों रे। ११

ऐसे मुनि की अपवाद मार्ग के सेवन में कभी रूचि नही होती. अपनी शक्ति प्रमाण एवं आगम के अनुसार ऐसे शिव मार्ग के रसिक मुनि आराधना में लीन रहते हुए (स्वयं के) कर्म बंधन के कारणों की निंदा करते हैं।

साध्य सिद्ध निज तत्वता रे, पूर्णानंद समाज ।
देव चंद्र पद साधता रे, नामिये ते मुनिराजो रे । १२

पूर्णानंदमयी निज तत्वता रूप साध्य जिन्हें सिद्ध हो गया है अथवा जो उसकी साधना में लगे हैं उन मुनिराजों को श्रीमद् देवचन्द्र नमन करते हैं।

श्रीमद देवचन्द्र विशिष्ट तत्त्व ज्ञानी थे। उनके स्तवन, सज्झाय आदि विशुद्ध आत्म तत्त्व के प्रेरक हैं। उन्होंने अष्ट प्रवचन माता की सज्झाया लिखी है जिसमे से एक यह मनो गुप्ती की सज्झाय है। यह अति विशिष्ट कोटि के मुनियों की अन्तरंग मनो दशा का वर्णन करता है। श्री अगर चंद नाहटा ने इस ग्रन्थ का सम्पादन एवं श्री भंवर लाल नाहटा
ने इसे प्रकाशित करवाया था। यह काफी कठिन विषय है अतः इसके अर्थ लिखने में गलतियाँ होने की बहुत गुंजाईश है। सुज्ञ पाठकों से भूल सुधारने की अपेक्षा है। मिच्छामी दुक्कडम।