पर्युषण हेतु मेरे कलकत्ता प्रवास के दौरान श्री दिनेश जी धूपिया ने मेरे से इन गाथाओं एवं दोहों का अर्थ लिखने के लिए कहा था। श्री दिनेश जी के पिता श्री केशरी चाँद जी धूपिया अत्यन्त धार्मिक व्यक्ति एवं जैन धर्म के विद्वान थे। उन्होंने नवपद जी की पूजा का अर्थ लिखा था। उसकी पाण्डुलिपि दिनेश जी के पास है। उस पाण्डुलिपि में कुछ प्राकृत की गाथाओं एवं गुजराती दोहों का अर्थ नही था। इस कारण उस पुस्तक का प्रकाशन नहीं हो रहा था। दिनेश जी की तीव्र इच्छा है की उस पुस्तक का प्रकाशन हो जाए जिससे लोगों को इस पूजा का अर्थ जानने में मदद मिल सके। मुझे आशा है की यह पुस्तक जल्दी ही लोगों के हाथ में आ जायेगी।
कलकत्ता प्रवास के दौरान व्यस्तता के कारण मैं यह काम नही कर पाया। अब नवपद जी की ओली प्रारम्भ होने वाली है एवं उसमें मात्र एक सप्ताह का समय वचा है। इस लिए मैंने इस कम को अभी करने का निर्णय लिया। कल मैंने नवपद ओली के संवंध में एक विस्तृत लेख भी लिखा है। मैं दिनेश जी का शुक्र गुजार हूँ की उन्होंने मुझे ऐसा सु अवसर प्रदान किया। दोनों ही कृतियाँ लोगों के काम आ सके इस लिए प्रकाशित किया जा रहा है। इसमें कोई त्रुटी हो तो सुज्ञ जन सुधार करने की कृपा करें।
(सिद्ध पद पूजा)
जाणे पिण न सके कही पुर गुण,
प्राकृत तिम गुण जास
ओपमा विण नाणी भवमाहें,
ते सिद्ध दियो उल्लास।
अरिहंत परमात्मा सिद्ध भगवान के सभी गुणों को अपने केवल ज्ञान से जानते हैं परन्तु जगत में उस लायक कोई उपमा नही होने के कारण कह नही सकते। जैसे कोई आदिवासी व्यक्ति जो सदा जंगल में ही रहता हो और एक वर किसी नगर में आ जाए तो नगर के वैभव को देख लेता है। वह नगर की समृद्धि को जनता तो है परन्तु अन्य वनवासियों को वहां वता नही सकता क्योंकि जंगल में नगर की शोभा की उपमा देने लायक कोई वस्तु नही होती।
(आचार्य पद पूजा)
नमूं सुरिराजा सदा तत्त्व ताजा ,
जिनेंद्रागमें प्रौढ़ साम्राज्य भाजा ।
षट वर्ग वर्गित गुणे शोभमाना
पंचाचारने पालवे सावधाना।
मैं सूरी अर्थात आचार्य भगवंत को नमस्कार करता हूँ जो की जिन शासन में राजा के समान हैं। सदा स्वाध्याय करने के कारण तत्वों से ताज़ा हैं। जिनेन्द्र भगवान के आगमों के प्रौढ़ व निष्णात हैं एवं शासन साम्राज्य को भली भांति संभालते हैं। छः का वर्ग अर्थात छत्तीस गुणों से शोभायमाण हैं एवं पाँच आचारों को सावधानी पूर्वक पालन करते हैं।
ध्याता आचारज भला,
महामंत्र शुभ ध्यानी रे।
पञ्च प्रस्थाने आतमा
आचारज होए प्राणी रे।
आचार्य भगवंत महामंत्र अर्थात सूरी मंत्र के ध्यानी होते हैं। श्रावकों के लिए नवकार, मुनिओं के लिए वर्धमान विद्या, एवं आचार्यों के लिए सूरी मंत्र महामंत्र होता है। एवं अपनी अपनी भूमिका के अनुसार वो उसकी साधना करते हैं। सूरी मंत्र में पञ्च प्रस्थान होते हैं जो की पञ्च परमेष्ठी के ही द्योतक हैं। ऐसे पञ्च प्रस्थान में रहने वाली आत्मा ही आचार्य होती है।
(उपाध्याय पद पूजा)
सुत्तत्थ वित्थारण तप्पराणं
णमो णमो वायग कुंजराणं।
गणस्स संधारण सायराणं
सव्वप्प्णा वज्जिय मच्छराणं।
सूत्र व अर्थ के विस्तार में तत्पर रहने वाले वाचक अर्थात उपाध्याय रूपी कुंजर अर्थात हाथी को वारंवार नमस्कार
हो। गणों को धारण करने में सागर के समान एवं सभी प्रकार की मत्सरता अर्थात इर्ष्या से दूर ऐसे उपाध्याय भगवंत हैं।
(साधू पद पूजा)
साहूण संसाहिय संजमाणम
नमो नमो शुद्ध दया दमाणं।
तिगुत्ति गुत्ताण समाहियाणं
मुणिण माणंद पयट्ठियाणं।
जिन्होंने संयम को अच्छी तरह से साध लिया है, जो शुद्ध दया एवं दमन से युक्त हैं उन साधुओं को वारंवार नमस्कार हो। जो तीनों गुप्तियों से गुप्त व समाधिस्थ हैं ऐसे मुनि आनंद में प्रतिष्ठित हैं।
(सम्यग दर्शन पद पूजा)
जिनुत्त तत्ते रुई लक्खणस्स
नमो नमो निम्मल दंसणस्स।
मिच्छत्त नासाई समुग्गमस्स
मुलस्स सद्धम्म महा दुमस्स।
जिनेश्वर देव कथित तत्व में रूचि जिसका लक्षण है ऐसे निर्मल संयाग दर्शन को वारंवार नमस्कार हो। मिथ्यात्व के नाश से जिसका उद्गम होता है ऐसा सम्यग दर्शन सत धर्म रूप महा वृक्ष का मूल है।
(सम्यग ज्ञान पद पूजा)
अण्णाण सम्मोह तमो हरस्स
णमो णमो णाण दिवायरस्स।
पंच्प्पयारस्सुवगारगस्स
सत्ताण सव्वत्थ पयासगस्स।
अज्ञान एवं सम्मोह रूप अन्धकार को हरण करने वाले ज्ञान रुपी दिवाकर अर्थात सूर्य को वारंवार नमस्कार हो। यहाँ ज्ञान पञ्च प्रकार का है एवं उपकार करने वाला है एवं सभी पदार्थ की सत्ता को प्रकाशित करनेवाला है।
(सम्यग चरित्र पद पूजा)
आराहियाखंडीय सक्कियस्स
णमो णमो संजम विरियस्स।
सब्भावणा संग विवट्टियस्स
निव्वाण द्नाणाइ समुज्जयस्स।
सत्क्रियायों के द्वारा जिसकी अखंडित आराधना की गई है ऐसे संयम में वीर्य अर्थात पुरुषार्थ को वारंवार नमस्कार हो। यह सद्भावनाओं के साथ विवर्तित होता है एवं निर्वाण देने में समुद्यत है।
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ज्योति कोठारी