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Monday, August 10, 2009
पर्युषण पर्व का महत्व भाग 2
यह पर्व भाद्रपद कृष्ण १२ से प्रारम्भ हो कर भाद्रपद शुक्ला ४ को पूर्ण होता है। पर्युषण पर्व का अन्तिम दिन संवत्सरी कहलाता है। संवत्सरी पर्व पर्युषण ही नही जैन धर्म का प्राण है। इस दिन साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसके द्वारा वर्ष भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं। साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी ८४ लाख जीव योनी से क्षमा याचना की जाती है। यहाँ क्षमा याचना सभी जीवों से बैर भाव मिटा कर मैत्री करने के लिए होती है। क्षमा याचना शुद्ध ह्रदय से करने से ही फल प्रद होती है। इसे औपचारिकता मात्र नही समझना चाहिए।
पर्युषण शब्द का अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। द्रव्य से इस समय साधू साध्वी भगवंत एक स्थान पर निवास करते हैं। भाव से अपनी आत्मा में स्थिरवास करना ही वास्तविक पर्युषण है। इस लिए इस समय यथासंभव विषय एवं कषायों से दूर रह कर अपनी आत्मा में लीन होने के लिए आत्म चिंतन करना चाहिए। साथ ही सामायिक, प्रतिक्रमण, देवपूजन, गुरुभक्ति, साधर्मी वात्सल्य अदि भी यथाशक्ति करने योग्य है।
इस समय कल्पसूत्र की वाचना होती है जिसमे तीन अधिकार हैं १ जिन चरित्र अधिकार २ स्थविरावली एवं ३ साधू समाचारी। जिन चरित्र अधिकार में पश्चानुपुर्वी से तीर्थंकर श्रमण भगवन महावीर, पुरुषादानिय पार्श्वनाथ, अर्हत अरिष्टनेमि व ऋषभ अर्हन कौशलिक इन चार तीर्थंकरों का विस्तार से एवं शेष २० तीर्थंकरों का संक्षेप में जीवन चरित्र वांचा जाता है। स्थविरावली में चरम तीर्थंकर महावीर स्वामी के गणधरों से ले कर आज तक के युगप्रधान आचार्यों एवं स्थविर मुनियों का जीवन चरित्र समझाया जाता है। साधू समाचारी का वांचन साधू साध्वी भगवंतों के सामने किया जाता है। पर्युषण पर्व के समय कल्पसूत्र का वाचन अवश्य सुनना चाहिए।
पर्युषण पर्व का महत्व भाग 1
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1 comment:
A very good one about Paryushan. I have read both parts of Parushan posts.
It really informs about spirituality of Paryushana.
Thanks,
Narottam Bhai Sarvan Bhai Bhansali
Anand
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